'आपको मंच तब छोड़ देना चाहिए, जब आप में विनम्रता खत्म हो जाए'
एन टी 24 न्यूज़
विनय कुमार
चंडीगढ़
कुछ इन्हीं अल्फाजों के साथ शुरुआत हुई 14th विंटर नेशनल फेस्टिवल के छठे दिन रूबरू
कार्यक्रम की | जब भी ट्राइसिटी में पपेट कला को जीवंत रखने
की बात आती है, तो सबसे पहले जो नाम मन मस्तिष्क में उभर कर
आता है वह है लगभग दो दशक से भी ज्यादा पपेट कला को समर्पित कर चुके श्री शुभाशीष
नियोगी जी | उन्हें खुद अनुमान नहीं था कि वह इस क्षेत्र में
इतने दूर निकल आएंगे कि देश में पपेट कला का सबसे बड़ा नाम कहे जाने वाले “ पदमश्री
दादी पदम जी ” के बाद दूसरे सबसे बड़े पपेट मेकर बन जाएंगे |
नियोगी जी ने कहा कि उन्होंने पपेट कला के गुण दादी
पदम से ही सीखे, दादी पदम पपेट कला का एक ऐसा नाम है जो
बॉलीवुड फिल्मों के साथ साथ कॉमनवेल्थ वेल्थ गेम्स जैसे बड़े महाकुंभ में पपेट
बनाने की सेवाएं दे चुके हैं | उनके अनुसार वह है एक
रंगकर्मी परंतु शहर उन्हें " कठपुतलीवाला " के नाम से जानता है क्योंकि
वह बड़े संगठनों के साथ काम करने की बजाय पिछड़े हुए क्षेत्रों के बच्चों के साथ
नशा, भ्रष्टाचार और भ्रूणहत्या जैसे ज्वलंत मुद्दों पर नाटक
करने को प्राथमिकता देते हैं | उनके पास कोई रेपैट्री नहीं
है, बस कुछ जुनूनी लोग हैं जो की कला को समर्पित है जिनमें साइकोथैरेपिस्ट,एनिमेशन और कुछ नौकरी लोग हैं ,जो नौकरी के बाद
दोपहर से देर रात तक उनके साथ पपेट बनाने में उनकी मदद करते हैं | बकौल नियोगी जी वह बजट की समस्या के चलते स्टेज पर परफॉर्म नहीं कर पाते,
इसलिए वह सड़कों पर, मार्केट में और गांव गांव
जाकर नुक्कड़ नाटक करना पसंद करते हैं और उसमे खुश भी हैं | उनका
मानना है कि चाहे नाम हो या काम उतना ही इंसान को कमाना चाहिए, जिसमें गुजारा हो सके इससे ज्यादा लालच जिंदगी का सुकून छीन लेता है | देश में हजारों नाटक और वर्कशॉप का हिस्सा रह
चुके नियोगी जी के अनुसार उनके पपेट्स का आधार भी नवरस ही रहता है ,जिससे कि उनके पपेट्स नाटक के थीम के साथ आसानी से रिलेट करते हैं | शुभाशीष नियोगी पुराने अख़बारों, रस्सी, गत्तों, फोम, प्लास्टिक आदि की
मदद से नाटकों और अन्य सजावट के मौकों पर इस्तेमाल होने वाले स्माल और जायंट
पप्पेट्स बनाते है तो बजट की भी ज्यादा दिक्कत सामने नहीं आती | पपेट मेकिंग में अनेकों सम्मानों से नवाज़े जा चुके शुभाशीष नियोगी जी ने
पप्पेट्स के इतिहास पर रौशनी डालते हुए बताया की इस शैली का जन्म मूल रूप से
हजारों वर्ष पहले इजिप्ट में हुआ, जहाँ पर हाथी के दांतों और
क्ले से बने पप्पेट्स मकबरों और मीनारों के अन्दर सजाये जाते थे. भारत में भी कुछ
राज्यों में पपेट कला सैकड़ों वर्षों से आज भी जीवित है, रंगमंच
के साथ साथ विभिन्न तीज त्योहारों पर भी जिसका उपयोग किया जाता है. उसी प्रकार
स्थानीय संस्कृति के हिसाब भी उनके नाम भी रखे गए है, उदहारण
के तौर पर बंगाल की रॉड पप्पेट शैली को मूल रूप से “पुतुल
नाच” कहा जाता है, ओर बिहार की
पारंपरिक रॉड पप्पेट शैली को “यमपुरी” कहा
जाता है. तीस दिन के इस नाट्य समारोह में हर शनिवार को पप्पेट वर्कशॉप का आयोजन
किया जाएगा l
No comments:
Post a Comment